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द्यौश्च॑ त्वा पृथि॒वी य॒ज्ञिया॑सो॒ नि होता॑रं सादयन्ते॒ दमा॑य। यदी॒ विशो॒ मानु॑षीर्देव॒यन्तीः॒ प्रय॑स्वती॒रीळ॑ते शु॒क्रम॒र्चिः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dyauś ca tvā pṛthivī yajñiyāso ni hotāraṁ sādayante damāya | yadī viśo mānuṣīr devayantīḥ prayasvatīr īḻate śukram arciḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

द्यौः। च॒। त्वा॒। पृ॒थि॒वी। य॒ज्ञिया॑सः। नि। होता॑रम्। सा॒द॒य॒न्ते॒। दमा॑य। यदि॑। विशः॑। मानु॑षीः। दे॒व॒ऽयन्तीः॑। प्रय॑स्वतीः। ईळ॑ते। शु॒क्रम्। अ॒र्चिः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:6» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:26» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! (यदि) जो (प्रयस्वतीः) बहुत प्रकार का जिनमें तर्प्पण तृप्ति विद्यमान वे (देवयन्तीः) विद्वानों की कामना करनेवाली (मानुषीः) मनुष्यसम्बन्धी (विशः) प्रजा जिन (त्वा) आप (शुक्रम्) आपके पराक्रम और (अर्चिः) विद्या के प्रकाश की (ईडते) स्तुति करती हैं उन (होतारम्) दानशील आपको (दमाय) जितेन्द्रियत्व के लिये (यज्ञियासः) यज्ञ की सिद्धि करनेवाले (नि सादयन्ते) निरन्तर स्थापन करते हैं (द्यौः) प्रकाश (च) और (पृथिवीः) पृथिवी भी प्राप्त होती हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - जब राजा और राजपुरुष विद्या विनय और नीतियों से अपनी प्रजाओं को प्रसन्न करते और जितेन्द्रिय होकर दुष्ट व्यसनों से रहित होते हैं, वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्षों को प्राप्त होते हैं। यहाँ वीर्य और विद्या की उन्नति को उत्तम कारण जानो ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे राजन् ! यदि प्रयस्वतीर्देवयन्तीर्मानुषीर्विशो यं त्वा शुक्रमर्चिश्चेडते तं होतारं त्वा दमाय यज्ञियासो निषादयन्ते। द्यौः पृथिवी च प्राप्नोति ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (द्यौः) प्रकाशः (च) (त्वा) त्वाम् (पृथिवी) (यज्ञियासः) यज्ञस्य संपादकाः (नि) (होतारम्) दातारम् (सादयन्ते) स्थापयन्ति (दमाय) जितेन्द्रियत्वाय (यदि)। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (विशः) प्रजाः (मानुषीः) मनुष्याणामिमाः (देवयन्तीः) दिव्या गुणा विदुषो वा कामयन्तीः (प्रयस्वतीः) प्रयो बहुविधं तर्प्पणं विद्यते यासु ताः (ईळते) स्तुवन्ति (शुक्रम्) वीर्य्यम् (अर्चिः) विद्याप्रकाशम् ॥३॥
भावार्थभाषाः - यदा राजा राजपुरुषाश्च विद्याविनयेन नीतिभिश्च प्रजाः प्रसादयन्ति जितेन्द्रिया भूत्वा दुर्व्यसनरहिता भवन्ति ते धर्मार्थकाममोक्षान् प्राप्नुवन्ति। अत्र वीर्य्यविद्योन्नतेरुत्तमं कारणं जानन्तु ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेव्हा राजा व राजपुरुष विद्या, विनय व नीतीने आपल्या प्रजेला प्रसन्न करतात व जितेन्द्रिय बनून दुष्ट व्यसनांपासून दूर असतात ते धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्राप्त करतात. येथे वीर्य (शक्ती) व विद्या हे उन्नतीचे कारण आहे, हे जाणावे. ॥ ३ ॥